जिबन के हर क्षेत्र में निडर रहें
कितिना मन मोहक नहीं होता व दृश्य दोस्तों,जब सुबह की प्रथम प्रहरे में परिबेश होता शांत ,स्निग्ध,सुबासित, शीतल तथा मनोरंजक। सारे ओर आच्छादित स्वर्णभ अरुणिमा की पीली चादर की अंदर धरती की हर एक बस्तु और जिब में आजाता अनुरूप चमक। बदल देता रूप और बनाता सुंदर। निल आकाश में दलबद्ध उड़नेवाले चिड़ियां अपनी किचिर मिचिर पंच तान में बोलते जाते गीत। महा आनंद में पंख हिलाके उड़ते जाते अपनि गंतब्य पथपर निर्बि -कर बन कर एकदम भीति हीन। डर का कोई नहीं रहता गुंजाइश।
डर की प्रभाव से क्या कुछ होता
अनेक बार दिन प्रतिदिन जिबिन में अकसर देखनेको ये मिलता की बहुत सारे लोग कोई काम कारनेकी वक्त काफी परिसानी में रहते। हमेसा कोई डर की प्रभाव में रहते जो सीधे सीधे उनके कार्य दक्ष्यता पे पकाता अशर। ब्यक्ति यही डर के कारण हराता अपना कार्य दक्ष्यता।
आज इस विषय पर एक कहानी आपके समक्ष्य की कैसे डर किसीकी कार्य दक्ष्यता को करदेता सीमित,संकुचित और गिरादेत पार दर्शिता।
जिबन के हर क्षेत्र में निडर रहें
एकदा चित्रसेन नामक एक राजा बैशाली में राजूति कर रहेथे। व एक बहत बड़ा प्रभावशालि राजा। उनकी समय पे बैशाली अपनी प्रगति की बुलंद पर था। बडा खुशहाल भरा जिंदगी जिरहेथे प्रजा गण। राजा खुद एक बहुत बड़ा विद्वान थे। अपने राज सभा में नपंडितों को हमेसा अपनी पास रखते थे जो लोग नबरत्न कहलाते थे। हर एक पंडित से हमेसा संबंधित क्ष्येत्र की सलाह लेते थे।
इन में से सुर सेन एक महान पंडित जिसे गायन शैली में महारथ हासिल है। व एक महान संगीतज्ञ। जब भी व कुछ गातेथे अपनी आप बिन मेघ घूमर कर बारिश आजाता। इतिना था उनमें ऐसा अपूर्ब कला।
जब भी कुछ उसकी गाला से निकलता सभी को स्तब्ध करदेता। राजा हमेसा उसकी प्रसंसा करते । एक दिन सुर सेन पर प्रशन्न होके कहते। पंडित जी मेरे बिचार में आप ही संसार की सबसे बड़ा संगीतज्ञ है तो मैं आपको बिस्वकी सर्ब श्रेष्ठ संगीतज्ञ संगीत सम्राट पदपर आभुसित करना चाहता हूं। इसपर आपका क्या राय है?
राजा से ऐसी एक बात सुनतेही सुर सेन बोलने लगे। नहीं महाराज। में संगीत सम्राट नहीं हूं। मेरे गुरु हरि दास जी मुझ से भी बहुत अच्छा गाते हैं। व इस पुरस्कार का असली हकदार है ऐसा मैं मानता हूं महाराज। राजा उत्सुकता पुर्बक पूछते हैं, व कैसे ? सुर सेन कहते हैं, मेरे गुरुजी हरि दास जी महाराज हमेसा अपनी भक्ति भाव में तर्लिन होकर अपना प्रभु के लिए हमेसा गाते हैं मन में कोई डर या आसंका नहीं रहता मुझसे भी अच्छा कला उनकी गला से निकलता जो सुननेको और मधुर लगता।
राजा सुनके विस्मित होगये और कहने -लगे अरे आप ये क्या एक हास्यस्पद बाकय बोलरहे हैं। आप स्वयं राज पंडित हैं फिर आप को किस प्रकार का डर है कि जिसके कारण आप चापग्रस्त हो कर मुक्त रूप से गानहीँ पाते ? जवाब में सुर सेन कहते व मेरा मान सम्मान,प्रतिष्ठा का डर। मुझे ये एक डर हमेसा लगता कि आप कभी किसी मोड़ में मेरे संगीत पर बिगड़ नाजाएँ ताकि मेरे आपसे मिलनेवाला धन संपत्ति से कुछ कमी न होजाए। मैं हमेसा इसी डर में रहते हुए संगीत परिबेषण करता हूं तो उतना अच्छा नहीं उभरकर आपाता।
राजा सुर सेन का बात समझ गये। छद्म भेष लेकर हरि दास जी के पास पहंचते है। हरि दास जी आथित्य प्रदान करते हैं मगर बोलने पर भी कोई संगीत परिबे -षण नहीं करते। राजा परिसानी में रहते और सुर सेन को कहते हैं । सुर सेन कुछ ही दूर पे एक गलत सुर लेकर एक गीत बोलने लगते तो हरि दास जी तुरंत सही बोल बोलते बोलते एक संगीत समारोह बनालिये। राजा संगीत सुन के विमुग्ध होगये। हरी दास जी के प्रतिभा को सरहनाने लगे।
यही से ये सिख मिलती है कि डर रहित कर्म हमेसा सही और सत प्रतिसत सही होता। इसीलिए जिबिन के हर क्ष्येत्र में निडर बन कर कर्म करना चाहिए ताकि सफलता का औसद सप्रतिसत बन पाए।
राजा से ऐसी एक बात सुनतेही सुर सेन बोलने लगे। नहीं महाराज। में संगीत सम्राट नहीं हूं। मेरे गुरु हरि दास जी मुझ से भी बहुत अच्छा गाते हैं। व इस पुरस्कार का असली हकदार है ऐसा मैं मानता हूं महाराज। राजा उत्सुकता पुर्बक पूछते हैं, व कैसे ? सुर सेन कहते हैं, मेरे गुरुजी हरि दास जी महाराज हमेसा अपनी भक्ति भाव में तर्लिन होकर अपना प्रभु के लिए हमेसा गाते हैं मन में कोई डर या आसंका नहीं रहता मुझसे भी अच्छा कला उनकी गला से निकलता जो सुननेको और मधुर लगता।
राजा सुनके विस्मित होगये और कहने -लगे अरे आप ये क्या एक हास्यस्पद बाकय बोलरहे हैं। आप स्वयं राज पंडित हैं फिर आप को किस प्रकार का डर है कि जिसके कारण आप चापग्रस्त हो कर मुक्त रूप से गानहीँ पाते ? जवाब में सुर सेन कहते व मेरा मान सम्मान,प्रतिष्ठा का डर। मुझे ये एक डर हमेसा लगता कि आप कभी किसी मोड़ में मेरे संगीत पर बिगड़ नाजाएँ ताकि मेरे आपसे मिलनेवाला धन संपत्ति से कुछ कमी न होजाए। मैं हमेसा इसी डर में रहते हुए संगीत परिबेषण करता हूं तो उतना अच्छा नहीं उभरकर आपाता।
राजा सुर सेन का बात समझ गये। छद्म भेष लेकर हरि दास जी के पास पहंचते है। हरि दास जी आथित्य प्रदान करते हैं मगर बोलने पर भी कोई संगीत परिबे -षण नहीं करते। राजा परिसानी में रहते और सुर सेन को कहते हैं । सुर सेन कुछ ही दूर पे एक गलत सुर लेकर एक गीत बोलने लगते तो हरि दास जी तुरंत सही बोल बोलते बोलते एक संगीत समारोह बनालिये। राजा संगीत सुन के विमुग्ध होगये। हरी दास जी के प्रतिभा को सरहनाने लगे।
यही से ये सिख मिलती है कि डर रहित कर्म हमेसा सही और सत प्रतिसत सही होता। इसीलिए जिबिन के हर क्ष्येत्र में निडर बन कर कर्म करना चाहिए ताकि सफलता का औसद सप्रतिसत बन पाए।
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