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इस्वर बिस्वास सकारात्मकता का पहचान

 

इस्वर बिस्वास सकारात्मकता का पहचान
इस्वर बिस्वास सकारात्मकता का पहचान


 

दोस्तों अक्सर हमी इस्वर सब्द को लेकर बिभेदात्मक परिचर्चाए देखे होंगे I इसी संधर्भ में सारे मानब जाती दो ही सब्दों में बंटजाते हैं व है आस्तिक और नास्तिक I आस्तिक इस्वरके है की ऊपर बिस्वास करते हैं तो नास्तिक इसकी उलटा बिस्वास करते हैं I ये तो सही है दोस्तों हममेंसे कोई इस्वारको नहीं देखें है मग़र सर्बसक्तिमान एक सकती भी जगत में है इसे हम पूरी तरहसे नक्स्स्र नहीं सकते किउंकि ये हम भली भाँती जानते हैं की बिना बनानेवाले से कोई चीज तैयार नहीं होसकता तो इतिना बड़ा संसार का तो जुर एक निर्माता होता ही होगा I ये एक धारणा जो हममें सदैब एक सकारात्मक सोच पैदा करता I जब हम इस्वर बिसवासी बनते जहां हम कभी कोई अस्फल्ताको झेलते वहीँ पे एक DEFENCE MECHANISM की तरह काम करता और हमे उदासीनता से सकारात्मक्ता की लेजाता Iआज इसी सन्दर्भ में एक कहानी :

 

एक लोहार था, जिसने अपनी तमाम पीड़ाओं और बीमारियों के बावजूद ईश्वर से गहरा प्रेम किया। एक दिन उनके एक मित्र ने जो ईश्वर को नहीं मानते थे, उनसे पूछा:

आप एक ईश्वर से कैसे प्रेम कर सकते हैं जो दुख और बीमारी से पीड़ित है? लोहार ने अपना सिर नीचे किया और कहा, "

जब मैं लोहे का उपकरण बनाना चाहता हूं, तो मैं भट्ठी में लोहे का एक टुकड़ा डालता हूं।" फिर मैंने इसे निहाई पर रख देता और इसे अपने मनचाहे आकार को प्राप्त करने के लिए मारता । अगर मुझे पैसा कमाना है, तो मुझे पता है कि यह एक उपयोगी उपकरण बनना ही चाहिए । यदि नहीं, तो मैं इसे एक तरफ रख दूंगा जहां ये एक अनुपोयोगी बस्तु बनजाएगा I

यही कारण है कि मैंने हमेशा भगवान से यही प्रार्थना करता हूं कि भगवान! मुझे दुख की भट्टियों में रखो, लेकिन मुझे मत छोड़ो ...I

 

 

एक पत्थर जो एक कुल्हाड़ी के वार का सामना नहीं कर सकता है वह एक सुंदर मूर्ति नहीं बन सकता...

 

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