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विदा…

 

विदा…
विदा…

 इस बार जब मैं घर वापस आया, तो बाबू जी मुझे गूंगे हुए एक चकले के रूप में दिखाई दिए, बस सोच रहे थे कि उम्र का असर हो सकता है, मेरे पैर की उंगलियों की पूजा की और निवास में प्रवेश किया।!  हमेशा की तरह पति या पत्नी हाथ में तौलिया लिए बरामदे के भीतर पानी से स्थिति बन जाती है, हाथ धोती है और वहीं खाट पर बैठ जाती है।  लेकिन बार-बार मेरी निगाहें बाबूजी की ओर जा रही थीं, जो पहिए पर बैठने के विचार में ही डूबे रहते हैं।  सच कहूं तो अब एक असाधारण बेचैनी और तनाव मुझ पर और मेरे विचारों पर हावी हो गया था, ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मैं वास्तव में घर वापस आ गया हूं और बाबूजी ने मुझसे मेरी स्थिति के बारे में या कुछ भी नहीं पूछा होगा, लेकिन इस बार यह बिल्कुल हो गया था  शांत रहा।


   मैं सहन नहीं कर सका, मैं हार गया और बाबू जी के पास गया और उनके पास बैठ गया और उनके पैर की उंगलियों को बाहर निकालने लगा।!  अपने ही ख्यालों में खोये हुए बाबूजी मेरे स्पर्श को पाने के लिए झुके हो जाते हैं..!! 


   मैंने उनसे पूछा कि क्या समस्या है बाबा, आप इतने बेचैन क्यों खोज रहे हैं?  क्या आप अच्छा महसूस कर रहे हैं, कोई बात नहीं? 


   बाबू जी ने कहा नहीं बेटा, डरने की कोई बात नहीं है।  


  मैंने फिर पूछा- क्या बहू ने अब कुछ नहीं कहा या बच्चे?  अरे नहीं अब ऐसा नहीं है...!!  फिर आप इतने असंतुष्ट और उदास क्यों हैं?  मुझसे बार-बार पूछने पर और दबाव देने पर उसने जवाब दिया कि कुछ नहीं बेटा, अपनी मां को समझो, क्यों हाल के दिनों में हर पल मन भारी हो जाता है।  कभी इस बात पर विचार करते हुए कि पूरी बात लंबे समय से चली आ रही है, मुझे लगता है कि समय कितना निर्दयी है कि उम्र में जब कोई साथी चाहता है, तो वह खुद ही है या मैं खुद कितना बदकिस्मत हूं कि मेरे पास वास्तव में जो साथी है वह खुद यहां मिला है  अपने पिता के घर से डोली में बैठकर उन्हें इस आवास से बहुत दूर भेज दिया तो मेरा शक सच हो गया।  ! 


  उनके जाने के बाद बाबूजी बिल्कुल मेरे ही रूप में उभर आए थे और माँ की कमी बाबूजी के सहारे खायी जा रही थी, वह बिलकुल खराब हो गयी थी, माँ बन गयी थी, स्टील से दिखने लगी थी, लेकिन आजकल ऐसा हो सकता है।  उसके चेहरे पर असाधारण शर्म और लालसा।  मैं देख रहा हूँ, पलकें नम कर रहा हूँ, उन्हें बताया जा रहा था जैसे कि इन दिनों अपने विचारों में छिपी असीम भावनाओं को व्यक्त करने का जोखिम है, आपकी माँ - निश्चित रूप से अपनी विदाई में से एक मानी जाती हैं।


  जब वह अपने पिता के घर से निकली थीं  मेरे निवास पर वह आई थी, जिसने आते ही मेरे वजूद को एक सुनसान, परित्यक्त घर में या बदले में रंगहीन अस्तित्व के रूप में भर दिया था, जब वह इस निवास में आई, तो निवास और अस्तित्व के भीतर खुशियों से भरी खुशियाँ,  पहली बार वह भी सुशोभित हुई हैं।  वो दुल्हन बनकर मेरे वजूद में आई थी, इस बार भी उसने सोलह कपड़े पहने और मेरे वजूद से दूर हो गई, जब वो एक साथ हो गई, हमने कई खुशियां बांटी, अस्तित्व के असीम दुखों को साझा किया, लेकिन एक दूसरे को कभी नहीं तोड़ा।  अब तो नहीं दिया लेकिन इस दोदिन की विदाई ने इस घर को छोड़ दिया, मेरे अस्तित्व को त्याग दिया, मुझे तोड़ दिया जैसे मेरे पास कोई जीवन नहीं है उसके बिना, उसकी कमी हर पल काटती है, हर पल दर्द देती है, जैसे दुख और दर्द  मेरे रह जाने के सिवा और कुछ बचा ही नहीं, थोड़ा सा अकेलापन और काँटों का चुभता सन्नाटा, साफ-साफ अस्तित्व है पर बोझ की तरह उभर आया है, जैसे साँसें हैं पर अब धड़कनों की जरूरत नहीं। 


   वह मुखर हो गया और उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे या अलविदा कह रहे थे, और मैंने चुपचाप सबका ध्यान रखना बंद कर दिया, बाबूजी का हाथ बचाते हुए, वह प्रत्यक्ष हो गया, लेकिन सच कहूं, तो यह सब सुनकर और बाबूजी की स्थिति को देखकर मैं बोल्ड हो गया।  ओवर, रोम कांपने लगता है और मैं अपने मन में सोचता हूं कि यह "विदाई" कितनी असाधारण है इसके अलावा एक व्यक्ति को एक व्यक्ति के साथ मिलाता है और कभी-कभी एक व्यक्ति को एक व्यक्ति से पल भर में अलग कर देता है, जो अब है, समझ रहा है  पलक झपकते ही सब कुछ छोड़ कर हमारा वजूद छोड़ देता है, एक परे छोड़कर किसी भी तरह से पाने का मकसद नहीं।  प्रारंभिक वर्षों से लेकर युवा लोगों तक, युवा लोगों से लेकर वृद्धावस्था तक, अब हम यह नहीं पहचानते हैं कि हमें "विदाई" शब्द पर कितनी बार ठोकर खाने की आवश्यकता है।

   आज यह निवास, अगले दिन वह निवास, अभी इधर-उधर किसी पल के लिए, एक राज्य से दूसरे राज्य में, एक शहर से दूसरे शहर में।  लेकिन ख़ासकर यही है आत्मा की "आखिरी विदाई"... जब वह दुल्हन बनती है, आग की चिता के चक्कर लगाती है, परमात्मा के साथ चलती है, जिसके पीछे कई रिश्ते-रिश्ते हैं, बहुत अपने-असाधारण-  परिवार, पत्नी और बच्चे रो रहे हैं।  रोते रोते बच्चे।  सच जो भी हो "विदाई", हर बार होती है, किसी को अंदर से तोड़ देती है जैसे माँ की आखिरी "विदाई" ने बाबूजी को ठेस पहुँचाई थी.!  लेकिन यह मीलों समान रूप से वास्तविक है कि "विदाई" चाहे कितनी भी दर्दनाक हो मीलों लेकिन यह सच्चाई है, हम सभी को दिल से विदाई की इस रस्म को निभाने की जरूरत है, जो अपरिवर्तनीय सत्य के अलावा चिरस्थायी है।  

 

    फिर अब ये समझ में आया, मैं बाहर बरामदे के भीतर बेटी जुआ खेलने के लिए दौड़ा और उसे सीने से लगा लिया, देर-सबेर मेरी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली, जो मेरी गोद में एक कोमल मेमने की तरह दुबकी हुई हो गई।  नन्ही-नन्ही उंगलियों को बिना विशेषज्ञता के मिटाया जा रहा था और मेरी पत्नी का रुतबा रास्ते में मुझे या बाबूजी को नम आंखों से ढूंढ रहा था, शायद उसने भी दरवाजे के दरवाजे से "बहुत अंतिम विदाई" के शब्द सुने थे।

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