दोस्तों, समय की राहोंपे जीबन जब चलता है नाजाने कितने बार कितने परिबेश और परिस्तिति से संपर्क बनाके आगे चलताजाता। ऐसा नहीं कि सारे संपर्क जीबन के लिए अनुकूल ही होता। कभी कबार बुरी संपर्क भी बनजाता दोनों में। निबिडता भी घनीभूत रूप लेता। बुरीतरह प्रभावित होजाता बेचारा जीबन। एक भ्रान्तिकर परिस्तिति में पडजाता भुलजाता सही मार्ग। चलाजाता कहीं ओर पकडलेता कोई ऐसा एक रास्ता जहाँ उसे सेहना पड़ता आशातीत दुःख ही दुःख। तब जीबन बनजाता बिसादग्रस्त, हजजाता मानविय गुण। मिट जाता मानबता की नाम और निसान। मानब को महामानब बनानेवाला ओ सुप्तसक्ति उभर नहीं पाता। सुप्त ही अंदर रहजाता, बुरी आदत रूपी चार गण से छुटकारा पाना बनजाता मुश्किल मगर नामुमकिन नहीं।
आज जीबन दर्शन और मनोबेइजन-यानिक विचारधारा पर आधारित एक कहानी:
दुरंतक, अपना किशोराबस्था से युबा बस्था में पहंचुका है। नाम का पढ़ाई कोई काम नहीं। चरित्र और स्वभाव की दृश्टिकोण से देखाजाए तो एक अपदार्थ, नालायक ही। बचपन से ही बुरी आदतों में ग्रसित मरीज। कभी किसीको नहीं मानता। उसे हर अच्छी चीजों से नफरत रहता और हर ग़लत करने में मजाआता। हर किसीको चीटिंग करना, बुरी तथा अश्लील भाषा में गालियाँ करना, बेकार की बातों में समय गबाना, हमेसा झूठ ही बोलना आदि समस्त बद गुण अब उनमे आदत बनचुका है। ऐसे में अब ऐसा एक स्थिति में है कि जो भी करता बुरा ही करता।
"बुरा काम का परिणाम हमेसा बुरा ही निकलता" इसी नियम की तहत उसे फल स्वरूप कई बार जेल भी जानापडचुका है मगर अनुचिन्ता का बिषय यह है कि उसमें कोई परिबर्तन ही नहीं। दिनवा दिन व सारे बुरी आदतें और जैदा बलिस्ट बनके और बुरा काम करनेको प्राणोदना प्रदान कररहा है। परिणाम स्वरूप परिबर्तन एक ही है, "कभी व केवल चोर था अब दकायत बनचुका है।" बुरीतरह असामाजीक।
घर परिबार को भुलचुका है। परिबारवालों भी उसे भूल चुके हैं कि दुरंतक नामवाला कोई परिबार में है। जब कभी घर आता भी तो सभीने मनाकरदेते ये बोलके की "फिर कभी घर मत आना।" समाज में कोई उसका अतरंग ब्यक्ति नहीं। नकोई दोस्त नकोई प्यार। व अपनिआप एक डर का ही ख़्वाफ।
हरदिन चोरी और लूट तराज करना उसकी पेसा बनचुकि है। अपनी सेहरसे कुछ ही दुरिपे एक जंगली इलाका है। वहिंपे जाके छिपके मौका देखकर अपना काम को अंजाम देना उसका हरदिन का काम।
उसी ही जंगल का किसी एक गुम्फे में एक साधु महात्मा रहते हैं। लोग कभी कबार अपने समस्याओं की हलके लिए उनके पास आते हैं और अपने घर भी बुलाते हैं। अमाबास कि व रात था। साधु महात्मा किसी भक्त की घर से कोई संकट मोचन करके गुम्फे की ओर आरहेथे। अंधकार पूर्ण रात था। दुरंतक पहचान नहीं पाया और क्रोधित कंठ में बोलने लगा, "अरे ए, ठहर जा। भागता काहाँ है तू? आज तुझे मरना ही होगा।"
साधु महात्मा रुकगये। जब दुरंतक सामने आया पहचान गया। साधु महात्मा जी को प्रणाम किया। तब उसे साधु महात्मा कहनेलगे, "ठीक है बेटा, तुझे क्या चाहिए?" दुरंतक उत्तर कुछ भी नहीं दिया। केवल कहरहा था, "मुझे माफ़ करदीजिए बाबा में आप को पहचान नहीं पाया।" तब साधु जी बोलते हैं, "दुरंतक, इसमें तुम्हारा क्या भूल? तुम जो तुम्हे ही नहीं जानते मुझे कैसे जान सकोगे? इसमें तुमारी कोई दोष नहीं बल्कि तुम्हारे में स्थित बुरी आदतों का है। वे सारे जब सही होजाएंगे तुम फिर से सही इंसान बन पाओगे। चलो अब तुम्हे मेरे साथ जानाहोगा। तुम्हे सुधारना ही होगा।"
दुरंतक अब किंकर्ताब विमूढ़ बन चुकाथा। तंग होचुका था अपना ही जिबनको लेकर। जीबन में कोई स्पृहा ही नहीं था। साधु महात्मा जी के साथ एक अबोध शिशु-सा बनके चलागेया गुम्फे की ओर। गुम्फे में जाके साधु महात्मा दुरन्तक को फल खिलाते हैं और जिम्मा भी देडालते सारे संपत्ति को और निश्चिन्त सोजाते।
दुरंतक को अब नींद नहीं आता। साधु के शान्त और उदार दिल उसकी दिल में कुछ हिल्लोल पैदा करनेलगा। जब प्रातः समय आया, साधु जी अपना सज्या त्याग पुर्बक स्न्नान सौच करनेको दुरन्तक को बोले। दुरंतक साधु जी के आदेशानुसार अपनिआप को ढालनेलगा। योग प्राणायाम, नियमित फल आहार, हरदिन चारसे पांच घंटा अध्ययन। साधुओं के संग संगत, दूसरों के प्रतिसहयोग की मनभाव, पितामाता, बंधुबर्ग के साथ उचित संपर्क आदि सारे सुगुण कुच्छ ही दिन में उनकी आदतें बनगई। दुरंतक का जीबन सम्पूर्ण रूप में घनघोर अंधकार से प्रकाश की ओर चलनेलगा। दुरंतक का आदत में परिबर्तन जीबन में परिबर्तन लाया।
यही से ये एक सिख मिलती है कि कोई आदमी बुरा नहीं होता। किसी की आदतें बुरी होती जिसे सही में परिबर्तन करके उसे एक सही इंसान बनायाजासक्ता। जिसकेलिए ज़रूरी होता कुछ सकारात्मक प्रयास और संकल्प।
आज जीबन दर्शन और मनोबेइजन-यानिक विचारधारा पर आधारित एक कहानी:
दुरंतक, अपना किशोराबस्था से युबा बस्था में पहंचुका है। नाम का पढ़ाई कोई काम नहीं। चरित्र और स्वभाव की दृश्टिकोण से देखाजाए तो एक अपदार्थ, नालायक ही। बचपन से ही बुरी आदतों में ग्रसित मरीज। कभी किसीको नहीं मानता। उसे हर अच्छी चीजों से नफरत रहता और हर ग़लत करने में मजाआता। हर किसीको चीटिंग करना, बुरी तथा अश्लील भाषा में गालियाँ करना, बेकार की बातों में समय गबाना, हमेसा झूठ ही बोलना आदि समस्त बद गुण अब उनमे आदत बनचुका है। ऐसे में अब ऐसा एक स्थिति में है कि जो भी करता बुरा ही करता।
"बुरा काम का परिणाम हमेसा बुरा ही निकलता" इसी नियम की तहत उसे फल स्वरूप कई बार जेल भी जानापडचुका है मगर अनुचिन्ता का बिषय यह है कि उसमें कोई परिबर्तन ही नहीं। दिनवा दिन व सारे बुरी आदतें और जैदा बलिस्ट बनके और बुरा काम करनेको प्राणोदना प्रदान कररहा है। परिणाम स्वरूप परिबर्तन एक ही है, "कभी व केवल चोर था अब दकायत बनचुका है।" बुरीतरह असामाजीक।
घर परिबार को भुलचुका है। परिबारवालों भी उसे भूल चुके हैं कि दुरंतक नामवाला कोई परिबार में है। जब कभी घर आता भी तो सभीने मनाकरदेते ये बोलके की "फिर कभी घर मत आना।" समाज में कोई उसका अतरंग ब्यक्ति नहीं। नकोई दोस्त नकोई प्यार। व अपनिआप एक डर का ही ख़्वाफ।
हरदिन चोरी और लूट तराज करना उसकी पेसा बनचुकि है। अपनी सेहरसे कुछ ही दुरिपे एक जंगली इलाका है। वहिंपे जाके छिपके मौका देखकर अपना काम को अंजाम देना उसका हरदिन का काम।
उसी ही जंगल का किसी एक गुम्फे में एक साधु महात्मा रहते हैं। लोग कभी कबार अपने समस्याओं की हलके लिए उनके पास आते हैं और अपने घर भी बुलाते हैं। अमाबास कि व रात था। साधु महात्मा किसी भक्त की घर से कोई संकट मोचन करके गुम्फे की ओर आरहेथे। अंधकार पूर्ण रात था। दुरंतक पहचान नहीं पाया और क्रोधित कंठ में बोलने लगा, "अरे ए, ठहर जा। भागता काहाँ है तू? आज तुझे मरना ही होगा।"
साधु महात्मा रुकगये। जब दुरंतक सामने आया पहचान गया। साधु महात्मा जी को प्रणाम किया। तब उसे साधु महात्मा कहनेलगे, "ठीक है बेटा, तुझे क्या चाहिए?" दुरंतक उत्तर कुछ भी नहीं दिया। केवल कहरहा था, "मुझे माफ़ करदीजिए बाबा में आप को पहचान नहीं पाया।" तब साधु जी बोलते हैं, "दुरंतक, इसमें तुम्हारा क्या भूल? तुम जो तुम्हे ही नहीं जानते मुझे कैसे जान सकोगे? इसमें तुमारी कोई दोष नहीं बल्कि तुम्हारे में स्थित बुरी आदतों का है। वे सारे जब सही होजाएंगे तुम फिर से सही इंसान बन पाओगे। चलो अब तुम्हे मेरे साथ जानाहोगा। तुम्हे सुधारना ही होगा।"
दुरंतक अब किंकर्ताब विमूढ़ बन चुकाथा। तंग होचुका था अपना ही जिबनको लेकर। जीबन में कोई स्पृहा ही नहीं था। साधु महात्मा जी के साथ एक अबोध शिशु-सा बनके चलागेया गुम्फे की ओर। गुम्फे में जाके साधु महात्मा दुरन्तक को फल खिलाते हैं और जिम्मा भी देडालते सारे संपत्ति को और निश्चिन्त सोजाते।
दुरंतक को अब नींद नहीं आता। साधु के शान्त और उदार दिल उसकी दिल में कुछ हिल्लोल पैदा करनेलगा। जब प्रातः समय आया, साधु जी अपना सज्या त्याग पुर्बक स्न्नान सौच करनेको दुरन्तक को बोले। दुरंतक साधु जी के आदेशानुसार अपनिआप को ढालनेलगा। योग प्राणायाम, नियमित फल आहार, हरदिन चारसे पांच घंटा अध्ययन। साधुओं के संग संगत, दूसरों के प्रतिसहयोग की मनभाव, पितामाता, बंधुबर्ग के साथ उचित संपर्क आदि सारे सुगुण कुच्छ ही दिन में उनकी आदतें बनगई। दुरंतक का जीबन सम्पूर्ण रूप में घनघोर अंधकार से प्रकाश की ओर चलनेलगा। दुरंतक का आदत में परिबर्तन जीबन में परिबर्तन लाया।
यही से ये एक सिख मिलती है कि कोई आदमी बुरा नहीं होता। किसी की आदतें बुरी होती जिसे सही में परिबर्तन करके उसे एक सही इंसान बनायाजासक्ता। जिसकेलिए ज़रूरी होता कुछ सकारात्मक प्रयास और संकल्प।
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