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आशा ही आशा का फलबत

आशा ही आशा का फलबत

रामलाल गोपालपुर गांब का एक छोटी सी लड़का। पढ़ाई से लेके हर क्ष्येत्र में अपना पारदर्शिता दिखाता। हमेसा हर प्रतियोगिता में हिस्सा लेता,अच्छा भी करता। एक सकारात्मक मनोभाव हमेसा रखता यही एक कारण जो उसे कामयाब बनातेजाता। अब व स्कूली शिक्षया समाप्त करचूकी है और नजदीकी सेहर भीमगढ़ कॉलेज में दाख़िलात लेने के बाद मेहसूस ये करता है कि इहाँ कोई भी प्रतियोगिता में सफल बनना काफी मुश्किल है। जब व स्कूल की चार दीवार में से  अपनी आप को कॉलेज की बिराट परिसर पर लेके स्व-स्थिति को खोजने के लिए कोसिस करता तो मुश्किल सा नजराआता। कॉलेज में होने वाले प्रथम प्रतियोगिता में जब व पहली बार प्रतिभागी बनता तब उस प्रतियोगिता में साठ प्रतियोगी रहतेथे। इसी बार व जीबन में  पहला असफलबना । उदास होकर घर लौट आया।

मुख में निराशा का बादल छायाहूआ था। माँ देखते ही पूछने लगे,"क्या हुआ बेटा ? कियूं दुःखीमन रहते हो ?" रामलाल सचसच सारीबातेँ बतादेता। माँ उनकी सारे बातें सुनते हैं और फिर कहते हैं,"अच्छा बेटा, बोल तो जरा,तुम्हारे कॉलेज में कुल कितीने बच्चे पढ़ते हैं?" बेटा बोलता लगभग पांच हजार। फिर माँ रामलाल को पूछते हैं, बताओ,उनमे से कितने लोग प्रतियोगिता में भाग लिएथे ? बेटा कहता है साठ थे माँ। तब माँ बोलते हैं,"लो बेटा, पांच हजार से तुम लोग केवल साठ ही प्रतिभागी बने थे तो तुम्हारेलिए व एक खुसीकी बात है। तुम्हे खुस होना चाहिए कॉलेज जानेका पहली ही प्रतियोगिता में प्रतिभागी बननेवालों में से तुम एक बनचुके हो। जहां चार हजार नसौ पचास बच्चे लोग प्रतिभागी ही बननेको हिम्मत तक नहीं जुटापाए तुम प्रतिभागी बनचुके हो। ऐसे ही प्रयास करते चलो,देखना एक न एक दिन तुम जरूर सफल बनजाओगे।"

माँ की प्रेरणात्मक और सकारात्मक बात को दिल मे रखतेहुए रामलाल फिर से अपनी में हिम्मत जुटाया। मन ही मन सारे प्रतियोगिता में प्रतिभागी बनने को मन में ठान ली। इच्छा है तो मौका अपनिआप आहिजाता है। ठीक ऐसा ही हुआ रामलाल की क्ष्येत्र में । पहली शाल व तीस से जैदा प्रतियोगिता में प्रतिभागी बना मगर अबसोस एक भी प्रतियोगिता में कोई सफलता नहीं मिला। लेकिन माँ की कहीगयी बातको व भलीभाँति मन में रखाथा। अगली शाल फिर से सारे प्रतियोगिता में भागलिया। तीन में सफल भी बना। यहीं से सुरुहूआ उसका बिजय की सिलसिला जो फिर कभी कहीं रोका नहीं। कॉलेज की शेष दो शाल लगातार व चैम्पियं भी बना। उसकी आशाबादी दृष्टिकोण उसको सफलता दिलाया। दृढ़ आत्मबिस्वास और निरंतर प्रयास ही सफलता का सबसे सरल उपाय माना -जासकता।

कई बार हमारे दृष्टिकोण हमारे समस्या की कठोरता को स्थिर करता। जब एक गिलास में आधी पानी होता,इसे हम लोग आधी खाली या आधी भर्ती बोलकर कहसक्ते हैं लेकिन ,"आधी भर्ती आशाबाद को सुचाता है तो आधी खाली निराशा का परिचय होता है। ऐसा एक परिस्थिति में आशाबाद को अपनाना सबसे सही होता।"

जब इस बार हाथ में चैम्पियं कप लेके हंसते हंसते बेटा घर आया ,माँ भी हँसतेहुए बोलते ,"देखा बेटा, अनेक समय मे हम अपनिआप को हम से अच्छी स्थिति में रहनेवाले लोगों के साथ तुलना करने से ब्यतीब्यस्त होनेका स्थिति में आजाते हैं जो हमारेलिए सफलता का परिपंथी बनता और तबियत हानि की कारण भी। लेकिन तब हम ये भुलजाते की हमारे स्थिति से भी बहत सारेलोग निच्चे होते हैं । समझो कि हम किसीकी पेर में जैदा दाम की चप्पल को देख के दुःखी बनजाते हैं, ये समझते हुए की हम उन से निच्चे में है मगर साथ ही कभी ये नहीं सोचते कि वेसे भी लोग होते हैं जिनके कोई पेर ही नहीं होता। उनके तुलना में हमलोग क्या भाग्यशाली नहीं होते ?

यही से ये एक शिख मिलती है कि इंशान हर परिस्थिति में आशाबादी होनेकी साथ साथ जोकुछ भी हमारे साथ है वहीं पे खुश रहना चाहिए।

धन्यवाद.....
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