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कैसा है मेहनत का रंग

कैसा है मेहनत का रंग

करुणाकर अब अपना चतुर्थ अबस्था मे है। क्या कुछ मेहनत नहीं किया जीबन मे परिबार पोषण के लिए।अपना चार बीघा जमीन में दिन रात अकलान्त परिश्रम की बल पर कमालेता था ख़ूबसारे , कभी परिबार में कोई भी आर्थिक संकट था ही नहीं। खेती किसानी से ही अपना चार चार बेटों को पढ़ा लिखाकर शादी बिहा भी कर चुका है। अब उन से वे सारे काम होता नहीं। घर मे ही काल जापन करता है। अपना पोता पोतियों के साथ खेलता ,कहानी सुनाता और जैदा समय पर नीति शिक्षया ही देतेजाता। व एक बड़ा मास्टर बनगया है। हमेसा उसका ये एक सोच हमेसा रहता की जीबन मैं उनका जो सारे बहुमूल्य अभिजन्यताएँ हैं उसको सभी को बाँटाजाए ताकि कभी भी किसी को कोई समस्या  समाधान करने मे दिक़त न आए। बात तो वाकई महतवपूर्ण है मगर बच्चेलोग ये समझते ही काहाँ,जब करुणाकर नीतिबानी प्र्रारंभ करता मुहं मोड़ के कहिंपे चलेजाते। तब करुणाकर क्रोधित हो के बिलबिलाते हुए बोलता। "तुम्हे अछिबात नहीं सुननी है न। सारे मरोगे। आज से तुम्हे कहानी सुनाना बंद।"

अभी जीबन ठीक से चलरहा है। बेटों मैं भी एकता है। सारे मिलजुल कर एक साथ रहरहें है। घर मे शांति और एक सौहार्दयपूर्ण बाताबरण है। काफी एक खुशाल जिंदगी चलरहा है सिबा करुणाकर की तबियत। बुढापे में है तो होगा ही। 

अचानक एक दिन करुणाकर गम्भीर बीमारी का शिकार होता है। अपना अंतिम काल मे अपना चार बेटों को पास बुलाके बोलता "बेटों  तुम्हारेलिए हमारे घर की बगल मे स्थित जमीन पे गुप्त धन मैं छिपा के रखा हुँ। मेरे मौत के बात आपस मे बाँटलेना।"ऐसा ही कहके आखरी सांस लेलिया।

पिता जी की अंतिम संस्कार खत्म करके बेटों ने अपने मैं बिचार विमर्श किये और पिता जी की बातपे बिस्वास करतेहुए उस जमीन को खोदनेलगे। कोदते ही जाते खोदते ही जाते ,कहिंपे भी गुप्त धन की कोई संधान ही नहीं। काफी निराश होचुके हैं। फिर भी मन मे ये एक बिस्वाश है। पिता जी कैसे हमे ऐसे इतिना बडा एक झूट बोलसक्ते हैं।

बारिष का समय आगेया तो वे लोग भाबनेलगे कोई धन तो मिलानेहीं अब कियूं इतिने सारे मेहनत को बेकार जाने देंगे, कुछ धान की बीज बो देनी चाहिए। ऐसा ही हुआ। वेसे ही चार महीना देखते ही बितगेया। समय समय पे वे लोग खेत की देखभाल कर रहेथे। एकदिन चारों भाई एकसाथ खेत प्रदर्शन मे चलेगये और देखे की खेत मे सोना का फशल हबा मे लहलहारहा है। बड़ी भैया भाइयों को बोलनेलगे"भाइयों ,आज में समझ - गेया पिता जी की कहा। ये देखो यही है व गुप्त धन।"सभी ने पिता जी को सरहनाने लगे और उनकी बात समझ गए की "क्या है मेहनत का रंग।"
इसी से ये सिख मिलती है कि कहीं से कुछ मिलने की आशा को छोड़ के अपना कर्म पर बिस्वास रख के जीबन मैं आगेबढना चाहिए कियूं की ये गीता का ज्यान "कर्मण्ये वाधिकारस्ते माफलेसु कदाचन।"

धन्यवाद.....
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