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क्या है ब्यक्तित्व गठन में विनम्रता का स्थान

क्या है ब्यक्तित्व गठन में विनम्रता का स्थान

पुरातन काल की बात। पुष्प बन राज्य में पुष्पेंद्र रायबाहादुर सिंह नामक एक राजा शासन कर रहे थे। बहत ही पराक्रम शाली। युद्ध बिद्या में बहत ही पारंगत लेकिन अनुभब और ज्यान की दृष्टि से उतना ही दुर्बल। सामान्य बात पे भी हमेसा मंत्रीगण से सलाह लेतेथे। व हमेसा ये सोचते थे कि उनकी कोई एक गलत निर्णय के कारण किशी भी एक प्रजा का कोई भी हानि नाहो। इसी की प्रश्रय लेके कुछ गलत मंत्रीगण गलत सलाह भी देते थे जो कई बार गलत भी प्रमाणित होचुका था। इसीलिए राजा उन सारे गलत मंत्रियों को निकाल के कोई अछि सी जनयानी ब्यक्ति को सलाहकार रूप में नियुक्ति देने को आदेश देदिये। ढूंढते ढूंढते मंत्रीगण एक बहत बड़ा अभिजन्य मगर निरक्षयर ब्यक्ति को नियुक्ति देदिये जो उत्तम साबित भी हुए। बिद्या में कमी लेकिन बुद्धि में प्रखर थे।

राजा नब नियुक्त मंत्री को हमेसा अपना पास ही रखते थे और हर समय हर बात पे सलाह लेते थे जो बाकी सभी पात्र मंत्रीगण के लिए ईर्षा का कारण बनगेया था। सभी ने मिल के उसे पदच्युत करने के लिए आपस मे मिल के ठान लिए थे। 
इसी वक्त राजा के पास एक पंडित पहंच गए। अपनी पांडित्य की पराकाष्ठा को प्रदर्शन करके राजा का परामर्शदाता बनना उसका बहत बड़ा इच्छा था कारण उसको ये गोचर था कि अबकी राजा का परामर्शदाता कोई एक महान पंडित नहीं बल्कि एक सामान्य किसान ही थे। जिस का कोई बड़ा शिक्षया दिक्ष्या नहीं था। मन ही मन व ये सोच रहेथे की ,"मेरा पांडित्य को देखके राजा जरूर मुझे ही उनकी सलाहकार बना ही लेंगे।"

मन मे ऐसा ही एक सोच विचार लेके पंडित जी राजा का दरबार पे पहंच गए और वाहाँ उपस्थित सारे पंडित जनों तथा मंत्रियों को ललकारने लगे ये बोलते हुए की"इन्हां अब मेरे जैसा कोई एक पंडित हो क्या जो कोई मुझे पांडित्य की दृष्टि से परास्त करसकेंगे?" पंडित जी की ऐसा एक बात दरबार मे चंचलता खेलाडाल। एक के बाद एक पंडित जी से जूझने लगे लेकिन सभी को पंडित जी से हार की मात खानापडा। सर्मिन्दा मेहसूस करतेहुए सारे पंडित जी के कदमों के नीचे सर झुकालिए।

पंडित जी की गर्ब और एअहंकार का कोई सीमा नहीं था। अब व राजा को बोलने लगे,"महाराज, ये आप के लिए और राज्य के लिए एक सौभाग्य की बात की मुझ जैसे एक पंडित इन्हां उपस्तित है। आप मुझे आपका परामर्शदाता रूप में नियुक्त करदेना चाहिए।"

पंडित जी की प्रश्न का उत्तर में राजा बोलने लगे,"बास्तविक आपका ज्यान का कोई जवाब ही नहीं लेकिन मेरे सीमित बुद्धि से मैं इतना ही बोलूंगा की आप एक मूढ़ ही हो।"

मूढ़ ? सब्द सुनते ही पंडित जी चौंक गाये। राजा बोलने लगे,"सुनो मैं आपको  एक महान जनयानी मानता हूं। भिन्न भिन्न शास्त्रों से ज्यान आहरण पुर्बक आप वाकई एक ज्यान का समंदर ही हो लेकिन आपका मन मे स्थित ,"मैं ही सर्ब ज्यानी ऐसा एक भावना बिल्कुल गलत है। आप के पास क्या अभाव है ये आप को पता नहीं है फिर जोलोग अपनी पास क्या अभाव ये जानता ही नहीं व एक मूढ़ ही होता।

मैं जिसका सलाह लेता हूँ वह एक निरक्षयर है। मैं ये मानता हूँ। उनके पास कोई शास्त्रों के ज्यान है ही नहीं जो मैं मानता हूँ मगर एक अच्छी बात उस मे ये जरूर है कि उस की अंदर क्या कमी है व भलीभाँति जानते हैं। ये एक उसका  अच्छी गुण जो उसे विनम्र बनाता है। व विनम्रता का गुण आपके पास है ही नहीं। जबतक आप मे विनम्रता का गुण पलबित नहीं होगा तबतक आप मूढ़ ही रहेंगे।

यही से ये सिख मिलती है कि विनम्रता बिना ज्यान की कोई मर्यादा ही नहीं होता।

धन्यवाद.....
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