हिरे की अंगूठी
कल की रामनारायण आज काफी बड़ा हो चुका है मगर स्वभाव में जैसी की तैसी। कोई परिबर्तन ही नहीं। वही सरल,निराडम्बर,शांत, सुशील और सदा शान्तोष भावपूर्ण बिचार आचार आदि सारे सतगुण। ये आज की बात है नहीं। बचपन से ही उसका ये आभूषण है। पार्थिब पदार्थों पे कभी कोई इच्छा ही नहीं रखता। आसक्ति "शब्द " के साथ उसका दूर दूर तक नाता नहीं। हमेसा सीमित इच्छा। अत्यंत जरूरी चीजों के ब्यतीत व कोई और चीज चाहता ही नहीं।
पहले व घर परिबार में रहता था लेकिन अब व घर परिबार को परित्याग करतेहुए अकेले ही गाँव से कुछ ही दूरी पर एक आश्रम में संत की जीबन ब्यक्ति कररहा है। पहले की रामनारायण अब संत रामनारायण बनचुका है।
काफी जनयानी आदमी। बेद, पुराण,शास्त्र में एकदम पारंगम लेकिन कभी भी इसी पर अभिमान नहीं। दिनवा दिन संत जी की सुनाम सारे ओर प्रचारित होनेलगा। दूर दूर से लोग संत जी से दर्शन के लिए और अपनी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आते। संत जी सभी को अपनी समर्थ अनुसार सलाह और सहायता प्रदान करते मगर ये सारे चलता निषुल्क। किसी से कोई अर्थ या पदार्थ ग्रहण नहीं करते। संत जी के पास एक ही बात की कमी थी व है धन। दरिद्रता उनका पीछा नहीं छोड़ता। फिर भी अपना आदत और आदर्श को कभी छोड़ते नहीं। संत जी कब से पार्थिब पदार्थों से आसक्ति छोड़ चुके हैं ये बात पर आसंका जतातेहुए कुछ लोग परखने को चाहते थे,उन में से ताराकांत बाबू एक है।
ताराकांत बाबू उसी इलाका की सबसे बड़ा घनसाली ब्यक्ति। एक बड़ा सेठ। दान पुईन से भी नाता रखते हैं मगर परख के। जब से संत जी की बात उनकी कर्ण गोचर हुआ तब से "बात में कितना सच्चाई है परखने के लिए चाहते हैं। एक दिन व अपना एक नौकर को पास बुलाके उनकी हाथ मे एक हिरे की आंगुठी देके बोलते हैं ,तुम देर रात को जाके इसे संत रामनारायण की द्वार पे फेंककर आजाना।" नौकर मालिक की आदेश पुर्बक वेसा ही किया।
सुबह हुआ। संत रामनारायण जी आश्रम से बाहार निकलते ही एक हिरे की आंगुठी को द्वार पे पड़ा हुआ देखते हैं। अपना नित्यकर्म खत्म करके बाजार के ओर चलते हैं। ये सारे बातें ताराकांत बाबू छिप के ही नजर कररहे हैं। संत जी क्या कुछ करते हैं ये जानने के लिए पीछे पीछे अनुधाबान करते हैं।
संत जी बाजार में जाके एक रासन की दुकान पे घुशते हैं। दुकानदार को बोलते हैं मुझे एक वक्त के लिए जो सारे जरूरी खाद्य सामग्री केवल देदो । दुकानदार संत जी के मुराद की अनुसार एक वक्त के लिए सारे चीजें देदिया। प्रतिबदल में संत जी वही हिरे की आंगुठी दुकानदार को देनेलगे। दुकानदार हिरे की आंगुठी देखते ही चौंक गेया और बोला" बाबा,आप सायद नहीं जानते ये आंगुठी की कीमत। किसी सोनार के पास जाओ और पुछलो। कितना कीमती चीज है ये? जान के तुम हैरान में पडजाओगे। जो कुछ मोल के रूप मे मिलेगा तुम चाहो तो सारे जीबन चलजाओगे।
संत जी उत्तर में मगर इतिना ही कहते हैं,"में जानता हूँ। ये हिरे की आंगुठी है लेकिन मेरा जरूरत केवल एक वक्त की जरूरी खाद्य सामग्री। फिर अब इसके लाबा मेरे पास और कुछ है ही नहीं। तुम इसे लेलो। इस से और जैदा मेरा कोई इच्छा ही नहीं।"
यही से ये एक शिख मिलती है कि संत लोग जीने के लिए खाते हैं। खाने के लिए नहीं जीते। जानतेहुए भी सुख स्वच्छंदपूर्ण जीबन से दूर ही रहते हैं।
धन्यवाद.....
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