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केसा एक शिक्षया

कैसा एक शिक्षया


  दिब्यज्योति अब काफी बड़ा होगेया है। कॉलेज से स्नातक की डिग्री पानेके बाद तलासके नौकरी भी लगचुका है। तनखा भी कोई कम नहीं सबा एक लाख रुपैया महीना। अब उनके जीबन मे कोई समस्या है ही नहीं। जब दस साल पहले पिताजी गुजर गयेथे तब दिब्यज्योति छोटीसी उम्र का था। आर्थिक स्थिति काफी नाजुक सा था। माँ जैसे तैसे करके घर संभाल रहाथा साथ ही बेटे को पढ़ाने के लिए भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बेटा भी माँ का सपना पुरि करनेके लिये हमेसा प्रजत्नशील रहता था। अब व कर्म की फल मिलना प्रारंभिक स्थिति मे आपहंचा था। हमेसा माँ की बात पे चलता था दिब्यज्योति। माँ और बेटे मे अनाविल प्रेम और श्रद्धा रहता था। माँ योसोदा और कृष्ण जैसे संपर्क।

  अब व बेला आगेया था। बेटा को एक हात से दो हात तो करना ही था। इसी बारे मे माँ बहत परिसानी मे थी। आसपड़ोस,रिस्तेदारों को एक सुंदर,सद्गुण समपर्ण बहु खोजने को कहती थी मगर क्या करें बिधि का बिधान से ही संसार चलता ही है। संगीता जो बगल की गाँब सिरपुर का सदानंद सेठ का बेटी की साथ दिब्यज्योति का बिगत तीन साल से प्रेम संबंध चल रहा था। ये संपर्क इतिना गहरी थी कि दोनों शिब जी की मंदिर मे जाके सपथ लेचुके थे कि वे कभी भी एक दूसरे से बिछडे -नंगे नहीं। आखिर मे वेसा ही हुआ।

  दो साल बाद,एक बालबच्चा की रूप मे बालगोपाल राहुल का जन्म हुआ। घर मे खुशी ही खुशी। सबसे जैदा खुशी था दादी माँ। जब भी किसी को कहीं पे देखता तो कह उठता ,"जानते हो मेरा एक पोता हुआ है। मेरी सारे अभिलाशा अब खत्म होगेई। हे राम ,हे भगबान ,आप का लाख सुकरिया, आखिरकार आपने मेरे दुःख सुनली प्रभु। मैं करता रहूँ सदा तुम्हारा जय जयकार। मेरे लाल जिए हजारों शाल तुमको ये मेरा प्रणति बार बार।" उनकी हर्ष उल्लास का कोई सीमा ही नहीं।

  दिन वादिनी पूर्णचन्द्र जैसे राहुल बढ़ता ही जारहाथा। दादी माँ का साथ हमेसा खेलता कूदता था। कभी कभी कुछ खरिदने के लिए तंग भी करता था। समय समय पर गालीगुलज तो और कोई समय पे प्रबल प्रेम भी जताता था।

  उम्र ढलजाने से सरीर मे दुर्बलता आताही है। ठीक उसी तरह दादी माँ की जीबन मे भी एक समय आगेया। अब जैदा कुछ करनही पातिथि। उठने बैठने मे भी दिक्कत, अपनी आप को संभालने मे भी असमर्थ। घर की एक परित्यक्त कमरे मे है। हमेसा एक चारपाई पे पड़ा रहता है। सरीर से और कमरे से बद्दू निकल रहा है। कोई इनका देखभाल नहीं करते। केबल खाने की समय पर एक मिट्टी की बर्तन पे जाके संगीता कुछ खाना फेंक के चला आता मुहँ मे कपड़ा डालके। कभी किसी चीज केलिए कुछ बोले तो डांट मिलती। यही एक कारण जो उसे अब मूकबधिर बनादिया है। दयनीय एक दुःखी जीबन उसी कमरे मे ब्यतीत हो रहा था। किसी के पास कोई समय नहीं होता उनकी हालचाल पूछने को केबल पोता राहुल के सिबा। हमेसा स्कूल से आते ही राहुल दादी माँ के पास जाती थी। चाकलेट,बिस्क्यूट जोभी लाता खानेको बोलती मगर दादी माँ खाती नहीं मनाकर देती ये बोल के" तू खा ये मुझे अछि नहीं लगती।"राहुल ही दादी माँ के लिए एक अकेला दोस्त था जीबन मे। ऐसे ही कुछ दिन चलता गेया। फिर कुछ दिन उपरान्त दादी माँ की देहांत होगेई।

  सुनते ही आसपड़ोस तथा बंधु परिजन तुरंत आपहंचे। सबसंस्कार के  लिए। सारे तैयारी के बाद दादी माँ की सब और व सारे दरकारी चीजें जो दादी माँ हमेसा ब्याबहार करती थी उसे भी लानेको दिब्यज्योति किसी को बोलरहे थे,राहुल चिल्ला के बोला ,पिताजी मत करो ये सारे बात। ये हमारे बंश परंपरा है। तुम लोगोंका जब बुढापा आजाएगा तब फिर ये सारे चीज में फिर तुमलोगों  केलिए काहाँ से लाऊंगा। तब दिब्यज्योति काएहसास करनेलगा उसका गलती। सारे लोग स्तब्ध होगये।

 यही से ये सिख मिलती है कि हर किसीकी जीबन मे संस्कार का एक बड़ा महत्व होता है। हम हमारे बच्चों को जैसा संस्कार देंगे वेसा ही उनसे हमे मिलेंगा। अतः हमे हमेसा अपनिआप को संस्कारी बनानाहोगा जिसका असर अपनिआप हमारे बच्चों के ऊपर पड़ेगा।

धन्यवाद.....



  
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